Sunday, March 20, 2016

वेद सार 33

स वज्रभृद्दस्युदा भीम उग्र: सहस्रचेता: शतनीथ ऋम्बां।
चम्रीषो न शवसा पाञ्चजन्यो मरुत्वालो भवत्विन्द्र ऊती।।
                                                                 ऋग्वेद :- 1/ 7/ 10/ 12

भावार्थ :- स: - सो आप
वज्रभृद्द - सर्वशिष्ट हितकारक दुष्ट विनाशक न्याय को धारण करने वाले
दस्युहा - दुष्ट पापी लोगों का हनन करने वाले
भीम: -आप की न्याय-आज्ञा को छोडऩे वालों पर भय देने वाले
उग्र - भयंकर
सहस्रचेता: - सहस्त्रों विज्ञानादि गुण वाले
शतनीथ: - सैकड़ों असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले
ऋम्बा - अत्यंत विज्ञानादि प्रकाश वाले, सबके प्रकाशक, महान महाबल वाले
चम्रीष: - चमू, सेना में वश को प्राप्त
न - नहीं
शवसा - स्वबल से
पाञ्चजन्य: - पांच प्राणों के जनक
मरुत्वान - सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक
न: - हमारी
भवतु - प्रवृत हों
इंद्र - देवराज
ऊती - रक्षा के लिए

व्याख्या - हे दुष्टनाशक परमात्मन। आप अच्देद्य सामथ्र्य से सर्व शिष्टहितकारक, दुष्ट विनाशक रूपीे न्याय को धारण करे रहे हो। 'प्राणों का वज्रÓ इत्यादि शतपथादि का प्रमाण है। अतएव दुष्ट पापी आदि लोगों का हनन करने वाले हो। आप की न्याय आज्ञा को छोडऩेवालों पर भयंकर भय देनेवाले हो। सहस्रों विज्ञानादि गुण वाले आप ही हो। सैकड़ों असंख्यात पदार्थों की प्राप्ति कराने वाले हो। आप अत्यंत विज्ञानादि प्रकाशवाले हो और सब के प्रकाशक हो तथा महान हो। किसी की सेना में वश को प्राप्त नहीं होते हो। स्वबल से आप पांच प्राणों के जनक हो। सब प्रकार के वायुओं के आधार तथा चालक हो सो आप हमारी  रक्षा के लिए प्रवृत हो जिससे हमारा कोई काम न बिगड़े।

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