Tuesday, March 1, 2016

व़ेद सार 27


गयस्फानो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवद्र्धन:। सुमित्र: सोम नो भव।। 
                                                                                   ऋग्वेद:- 1/16/21/12

भावार्थ:-गयस्फान:-प्रजा , धन, जनपद और सुराज्य को बढ़ाने वाला अमीवहा-शरीर, इन्द्रियजन और मानस रोगों का हनन, विनाश करनेवाला
वसुवित-सब पृथ्वी आदि वसुओं का जानने वाला, सर्वज्ञ, विद्यादि, धन का दाता
सुमित्र-सबका परम मित्र पुष्टिवद्र्धन-शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा की पुष्टि को बढ़ाने वाला सोम-हे सर्वजगदुत्पादक
न:-हमारे, भव-हो।

व्याख्या:-हे परमभक्त जीवो, अपना इष्ट जो परमेश्वर प्रजा, धन, जनपद और सुराज्य का बढ़ाने वाला है तथा शरीर, इन्द्रियजन और मानस रोगों का विनाश करने वाला है। समस्त पृथिव्यादि वसुओं का जानने वाला है अर्थात् सर्वज्ञ और विद्यादि धन का दाता है, अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा की पुष्टि को बढ़ाने वाला है। सुन्दर यथावत् सबका परममित्र वही है, सो अपने उससे यह मांगे कि हे सोम आप ही कृपा करके हमारे सुमित्र हो और हम भी सब जीवों के मित्र हों तथा अत्यंत मित्रता आप से भी रखें।

No comments:

Post a Comment