Wednesday, June 1, 2016

वेद सार 50

जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेद:।
स न: पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नाबेव सिंधु दुरितात्यग्नि।।
                                                                    ऋग्वेद:-1/7/7/1

भावार्थ:-
जातवेदसे-समस्त जगत को जानने वाले उत्पन्न मात्र के लिए ,सब में विद्यमान के लिए अर्पित करते हैं
सोमम-प्रिय गुण विशिष्ट आदि पदार्थों को
अरातीयत:-धर्मात्माओं के विरोधी दुष्ट शत्रु के
निदहाति-नित्य दहन करो
वेद:-धन,ऐश्वर्य आदि का
स:-आप
न:-हमको
पष्ज्र्ञदति-पार करके नित्य सुख को प्राप्त करो
दुर्गाणि-दु:सह दु:खों से
विश्वा-सम्पूर्ण
नावा-नौका से
इव-जैसे
सिन्धुम्-अति कठिन नदी
दुरिताति-सब पाप जनित अत्यंत पीड़ाओं से पृथक कर
अग्नि-परम सुख

व्याख्या:-हे समस्त जगत को जानने वाले परमब्रह्म आप सर्वत्र व्याप्त(प्राप्त) हो जो विद्वानों से ज्ञात सब मे विद्यमान हो। आपके लिए जितने भी प्रिय गुण विशिष्ट पदार्थ हें सब अर्पित है। सो हे कृपालो दुष्ट शत्रु जो हम धर्मात्माओं का विरोधी है उसका नित्य दहन करो जिससे वह दुष्टता को छोड़कर श्रेष्ठता को स्वीकार करे। साथ ही समस्त दु:खों से पार करके आप नित्य सुख को प्राप्त करो जैसे अति कठिन नदी या समुद्र से पार होने के लिये नौका होती हे वैसे ही हमको सब पापजनित अत्यंत पीड़ाओं से अलग करके संसार में और मुक्ति में ही परम सुख को शीघ्र प्राप्त करो।  

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