विभूरसि प्रवाहण:। बहिरसि हव्यवाहन:। श्र्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदा।
यजुर्वेद:- 5/31
भावार्थ:-विभू-हे व्यापकेश्वर,सर्वत्र प्रकाशित
असि- हो
प्रवाहण:-स्वस्व नियमपूर्वक चलानेवाले तथा सबके निर्वाहक
बहिरसि-हे स्वप्रकाशक
हव्यवाहन:- सब हव्य ,उत्कृष्ठ रसों के भेदक
श्र्वात्रा-हे आत्मन
प्रचेता-प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप
तुथ:-हे सर्ववित
विश्ववेदा-सब जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ कराने वाले
व्याख्या-हे व्यापकेश्वर आप सर्वत्र वैभवैश्वर्ययुक्त हो। आप समस्त जगत के निर्वाहकारक और उसे चलाने वाले हो । हे स्वप्रकाशक आप सभी हव्य उत्कृष्ठ रसों के भेदक आकर्षण तथा यथावत संस्थापक हो ँ हे आत्मन आप शीघ्र व्यवनशील हो तथा ज्ञान स्वरूप प्रकृष्ठ ज्ञान देने वाले हो। हे सर्वविद आप विश्ववेदा हो। समस्त जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ करानेवाले हो।
यजुर्वेद:- 5/31
भावार्थ:-विभू-हे व्यापकेश्वर,सर्वत्र प्रकाशित
असि- हो
प्रवाहण:-स्वस्व नियमपूर्वक चलानेवाले तथा सबके निर्वाहक
बहिरसि-हे स्वप्रकाशक
हव्यवाहन:- सब हव्य ,उत्कृष्ठ रसों के भेदक
श्र्वात्रा-हे आत्मन
प्रचेता-प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप
तुथ:-हे सर्ववित
विश्ववेदा-सब जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ कराने वाले
व्याख्या-हे व्यापकेश्वर आप सर्वत्र वैभवैश्वर्ययुक्त हो। आप समस्त जगत के निर्वाहकारक और उसे चलाने वाले हो । हे स्वप्रकाशक आप सभी हव्य उत्कृष्ठ रसों के भेदक आकर्षण तथा यथावत संस्थापक हो ँ हे आत्मन आप शीघ्र व्यवनशील हो तथा ज्ञान स्वरूप प्रकृष्ठ ज्ञान देने वाले हो। हे सर्वविद आप विश्ववेदा हो। समस्त जगत में विद्यमान प्राप्त और लाभ करानेवाले हो।
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