गणानां त्वा गणपतिœ यं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिœ हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिœं हवामहे वसो मम। अहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।
यजुर्वेद- 3/19
भावार्थ:-
गणानाम् - हे समूहाधिपते आप मेरे सब समूहों के पति होने से
त्वा- आपको
गणपतिम-गणपति नाम से
हवामहे- ग्रहण करता हंू
प्रियाणाम्- मेरे प्रिय कर्मकारी,पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हो
प्रियपतिम्-प्रिय पति
हवामहे - मैं अवश्य जानूं
निधीनाम् - सब निधियों के पति होने से
निधिपतिम् - निश्चित निधिपति
वसो- हे वसो
मम - अपने सामथ्र्य का
अहम् - मैं
अजानि - दूर फेकूं
गर्भधम् - सब जगत को जिस सामथ्र्य से उत्पन्न किया है उस अपने सामथ्र्य का धारण और पोषण करने वाला।
व्याख्या : हे समूहाधिपते। आप मेरे सब समूहों के पति होने से आपको गणपति नाम से ग्रहण करता हूं। तथा मेरे प्रिय कर्मकारी पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हैं। इनमे आपको प्रियपति मैं अवश्य जानूं। इसी प्रकार मेरी सब निधियों के पति होने से आपको मैं निश्चित निधिपति जानूं।
हे वसो। सब जगत को जिस सामथ्र्य से उत्पन्न किया है उस अपने सामथ्र्य का धारण और पोषण करने वाला आप को ही मैं जानूं। सबका कारण आपका सामथ्र्य है,यही सब जगत का धारण और पोषण करता है। यह जीवादि जगत तो जन्माता और मरता है। परंतु आप सदैव अजन्मा और अमृतस्वरूप हैं। आप की कृपा से अधर्म, अविद्या, दुष्टभावादि को दूर फेकूं। हमलोग आप की ही प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सो आप अब शीघ्र हम को प्राप्त हों जो प्राप्त होने में आप थोड़ा सी विलंब करेंगे तो हमारा कुछ भी ठिकाना नहीं लगेगा।
यजुर्वेद- 3/19
भावार्थ:-
गणानाम् - हे समूहाधिपते आप मेरे सब समूहों के पति होने से
त्वा- आपको
गणपतिम-गणपति नाम से
हवामहे- ग्रहण करता हंू
प्रियाणाम्- मेरे प्रिय कर्मकारी,पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हो
प्रियपतिम्-प्रिय पति
हवामहे - मैं अवश्य जानूं
निधीनाम् - सब निधियों के पति होने से
निधिपतिम् - निश्चित निधिपति
वसो- हे वसो
मम - अपने सामथ्र्य का
अहम् - मैं
अजानि - दूर फेकूं
गर्भधम् - सब जगत को जिस सामथ्र्य से उत्पन्न किया है उस अपने सामथ्र्य का धारण और पोषण करने वाला।
व्याख्या : हे समूहाधिपते। आप मेरे सब समूहों के पति होने से आपको गणपति नाम से ग्रहण करता हूं। तथा मेरे प्रिय कर्मकारी पदार्थ और जनों के पालक भी आप ही हैं। इनमे आपको प्रियपति मैं अवश्य जानूं। इसी प्रकार मेरी सब निधियों के पति होने से आपको मैं निश्चित निधिपति जानूं।
हे वसो। सब जगत को जिस सामथ्र्य से उत्पन्न किया है उस अपने सामथ्र्य का धारण और पोषण करने वाला आप को ही मैं जानूं। सबका कारण आपका सामथ्र्य है,यही सब जगत का धारण और पोषण करता है। यह जीवादि जगत तो जन्माता और मरता है। परंतु आप सदैव अजन्मा और अमृतस्वरूप हैं। आप की कृपा से अधर्म, अविद्या, दुष्टभावादि को दूर फेकूं। हमलोग आप की ही प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सो आप अब शीघ्र हम को प्राप्त हों जो प्राप्त होने में आप थोड़ा सी विलंब करेंगे तो हमारा कुछ भी ठिकाना नहीं लगेगा।
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