चतु: स्रक्तिर्नाभिर्ऋतस्य सप्रथा: स नो विश्वायु: सप्रथा: स न: सप्रथा:।
अप द्वेषोऽअप ह्वरोडन्यव्रतस्य सश्चिम।
यजुर्वेद:-38/20
भावार्थ :-
चतु: स्रक्ति - चार कोण वाली
नाभि - मर्मस्थान
ऋतस्य - ऋत की भरी नैरोग्य और विज्ञान का घर
सप्रथा: - विस्तीर्ण सुखयुक्त
स: - वह
न: - हमारी
विश्वायु : - पूर्ण आयु हो
सप्रथा: - जैसे सर्वसामथ्र्य से विस्तीर्ण हो वैसे आप
सर्वायु: - सर्वायु
अपद्वेष: - द्वेष रहित
अपह्वर: - चलन / कंपन रहित हो अन्यव्रतस्य - आपकी आज्ञा और आपसे भिन्न को लेशमात्र भी ईश्वर न मानें यही हमारा व्रत है
सश्चिम - आपको सदा सेवे
व्याख्या :- हे महावैद्य सर्व रोग नाशकेश्वर। ऋत की भरी चार कोणों वाली नाभि , नैरोग्य और विज्ञान का घर विस्तीर्ण सुखयुक्त आप की कृपा से हो तथा आप की कृपा से पूर्ण आयु हो। आप जैसे सर्व सामथ्र्य विस्तीर्ण हो वैसे ही विस्तृत सुख से विस्तार सहित सर्वायु हमको दीजिए।
हे ईश्वर हम द्वेष रहित आपकी कृपा से तथा चलन रहित हो। आप की आज्ञा और आप से भिन्न को लेशमात्र भी ईश्वर न मानें, यही हमारा व्रत है। इससे अन्य व्रत को कभी न मानें किंतु आप को सदा सेवें। यही हमारा परमनिश्चय है। इस परम निश्चय की रक्षा आप की कृपा से करें।
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