Saturday, April 9, 2011

आज भी प्रासंगिक है गांधीगीरी

अन्ना हजारे का अभियान दुनिया में अपने संदेश को पहुंचाने में सफल रहा। स्वतंत्रतापूर्व 1930-31 में गांधीजी का सविनय अवज्ञा,स्वतंत्रता पश्चात 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की झलक अन्ना हजारे की इस अहिंसक आंदोलन में दिखी। सारा देश उनके साथ खड़ा हो गया। इससे एक बात तो सामने आई कि आज देश को सही नेतृत्व देने बाले तथाकथित जनप्रतिनिधि किस हद तक खोखले हो चुके हैं। जिस काम को उन्हें करना चाहिए था उसे मजबूरन एक गांधीवादी व्यक्ति को करना पड़ा। आंदोलन में हर तबके के लोगों का जुडऩा यह बताता है कि भ्रष्टाचार रूपी जोंक किस कदर हर तबके के लोगों का खून चूस रहा है कि वह चाहकर भी बगावत नहीं कर पा रहा था। भ्रष्टाचार व्यवस्था से जुड़ी हुई समस्या है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। लंबे अंतराल के बाद सारी दुनिया ने देखा कि हर मर्ज के लिए आज भी गांधी व उनका सिद्धांत कितना कारगर अस्त्र है।
आज जब सारी दुनिया हर मोर्चे पर किसी न किसी जंग से जूझ रही है ऐसे में उनके लिए अन्ना का यह अभियान एक संकेत है कि मुद्दा चाहे कुछ भी हो अगर दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने आप पर सबसे ज्यादा भरोसा कर कुछ भी ठान लें और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रियाशील हो जाएं तो सफलता आपका कदम चूमेंगी। इसी तरह का कारनामा अभी-अभी टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी ने भी कर दिखाया है।
रही बात लोकपाल की तो यह समय ही बताएगा कि वह कितना कारगर होगा। हो सकता है कि इस आंदोलन के फलाफल के बाद पारित विधेयक के तहत नियुक्त लोकपाल के जरिए कुछ फिरकापरस्त लोग लोकतंत्र की आस्था का गला घोंटने का मन बनाए हों। लोकपाल की आड़ में सत्ता पर निरंकुशवादी प्रवृति का शिकंजा कसने की तैयारी हो और सत्ता का केंद्र्रीयकरण हो जाए। केवल विधेयक पारित कर लोकपाल की नियुक्ति से कुछ होने को नहीं है। जरूरत है लोगों को सच्चे दिल से कसम खाने की कि वह जेहन से भ्रष्टाचार को खत्म करने में खुद के साथ ही हर वैसे व्यक्ति व तंत्र के विरोध में खड़ा होकर मनसा,वाचा और कर्मणा से निर्मल होगा। क्योंकि गांधीजी हमेशा कहा करते थे कि कथनी और करनी में तालमेल के साथ कर्म करने पर ही सच्ची सफलता मिलेगी।

डॉ. राजीव रंजन ठाकुर

1 comment:

  1. आपके विचारों से मेरी सहमति है

    गांघी के सिद्धांतों को हमने हृदयंगम किया और देश की बागडोर ऐसी जमात के हाथों में दे दी, जिन्होंने गाँधी के नाम की न सिर्फ कसमें खाई बल्कि उनका नाम तक ओढ़ लिया.
    पर आज जब ये साफ़ हो गया है कि खुद को गाँधी के पद-चिन्हों पर चलने का स्वांग भरने वालोँ की ज़मीनी हकीकत क्या है, तो हमें एक सच्चे मायनों में एक गांधीवादी की जरुरत महसूस हो रही है, परन्तु, कुछ तथाकथित जन-नायकों को इसका भय इस तरह सता रहा है कि वे ऐसे किसी आंदोलन की शुरुआत केलिए भी नहीं तैयार हैं.
    एक व्यक्ति को कारागार में डाल कर बेशक एक दुर्योधन-भाव सिद्ध तो कर दिया गया है, पर भ्रष्टाचार-विरोध-विचार के विराट स्वरुप को कौन बाँधेगा?

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