Saturday, August 27, 2011

अन्ना की जीत हुई या लोकतंत्र में उभरा भीड़तंत्र

जब कोई आपको कर्तव्य याद दिलाता है तो बुरा लगता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने यही जोखिम उठाया। व्यवस्था को उसका काम याद दिलाया तो बिल्कुल नागवार गुजरा। माननीयों को लोकतंत्र और संविधान याद आया। आंदोलन में फूट भी डालने की कोशिश हुई। मगर 74 वर्षीय अन्ना हजारे की इच्छाशक्ति और सत्याग्र्रह के आगे पूरे तंत्र को घुटने टेकने पड़े। घोटालों दर घोटालों से ऊब चुका देश अन्ना के साथ खड़ा हो गया। हजारे ने कुछ सांसदों द्वारा उनके अनशन के 12 दिनचलने पर कथित तौर पर संदेह जाहिर करने के पर कहा कि यह मेरे ब्रह्मचर्य की ताकत है। जन लोकपाल विधेयक के तीनों गंभीर मसलों पर संसद में हुई बहस के बाद प्रस्ताव पर सैद्धांतिक सहमति बनी। अब यह प्रस्ताव संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाएगा।
अंतत: यह साबित हो गया कि गांधीवादी विचारधारा और तरीका आज के दौर में भी प्रसांगिक ही नहीं एक महत्वपूर्ण हथियार भी है। हलांकि गांधीजी ने जब भी अनशन किया वह आत्मशुद्धि के लिए था। अब देखना है कि देश की जनता और लोकतांत्रिक व्यवस्था किस कदर अन्ना के इस महाअभियान रूपी मंथन से निकले अमृत का पान करती है। कहीं यह न हो कि सम्माननीय अन्ना के इस कार्य को तथाकथित उनके पैरोकार उलटी दिशा में न बहा दें।

डाँ राजीव रंजन ठाकुर

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