अरे साहित्य!
अब तू भूल जा,
अपने स्वर्णिम सिद्धांतों को।
जब तू कहता था,
सर्वे भवन्तु सुखिन:।
छोड़ अपने संस्कारों को,
जिससे तू विभिन्न कालों में,
अपनी गणवेषणा करता था।
तू छोड़ अपनी नीति की नैया,
जब तू भक्ति, रीति व श्रृंगार के,
रसों को पिरोता था।
क्योंकि! अब,
न रहा वह साहित्य,
जिसे साहित्यकारों ने टटोला था।
साहित्य को चाहिए अब मंच,
क्योंकि उसके पंचों को,
नहीं है संच।
उसे चाहिए बरबस आरक्षण
क्योंकि दलितों को मिलता है संरक्षण।
साहित्य भी अब दलित हुआ,
बना उसका दलित मंच।
उस मंच पर काबिज हुए वो,
जिसे न मिला था मंच।
अब ने वे प्रणेता,
झिटकने को तमगा,
पर साहित्य तो हुई बरबस नंगा।
DR.Rajeev Ranjan Thakur
अब तू भूल जा,
अपने स्वर्णिम सिद्धांतों को।
जब तू कहता था,
सर्वे भवन्तु सुखिन:।
छोड़ अपने संस्कारों को,
जिससे तू विभिन्न कालों में,
अपनी गणवेषणा करता था।
तू छोड़ अपनी नीति की नैया,
जब तू भक्ति, रीति व श्रृंगार के,
रसों को पिरोता था।
क्योंकि! अब,
न रहा वह साहित्य,
जिसे साहित्यकारों ने टटोला था।
साहित्य को चाहिए अब मंच,
क्योंकि उसके पंचों को,
नहीं है संच।
उसे चाहिए बरबस आरक्षण
क्योंकि दलितों को मिलता है संरक्षण।
साहित्य भी अब दलित हुआ,
बना उसका दलित मंच।
उस मंच पर काबिज हुए वो,
जिसे न मिला था मंच।
अब ने वे प्रणेता,
झिटकने को तमगा,
पर साहित्य तो हुई बरबस नंगा।
DR.Rajeev Ranjan Thakur
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