उचित समय है यह,
करने का राजनीतिक पुनर्विलोकन,
राजनीतिज्ञ आत्ममंथन करें,
और करें अवलोकन !!
लंबी जंग और कुर्बानी दी,
मातृभूमि की रक्षा को।
तब पाई थी स्वाधीनता,
और जाने सर्वस्व को !!
पाई स्वाधीनता अवश्य,
मगर उलझ गए गोरे गालों में।
माता के हृदय को विभक्त किया,
और बंट गए दो राष्ट्रों में !!
हृदय विदृर्ण हुआ तब-तब,
जब-जब सपूतों ने खेली खून की होली
कहलानें को स्वतंत्र हुए,
अपनाई आर्थिक ऋण की झोली !!
लोकतंत्र की आंधी आई थी,
बीते लगभग बरस साठ
अपने साथ सपन लाई थी,
सबकुछ होगा सबके पास !!
वादों के बोझों को जनता,
आज रही है कंधों झेल
हे राजनीतिज्ञों! कब दोगे इससे मुक्ति,
जब हो जाएगा हर्ट फेल !!
लोकतंत्र की इच्जत उतरी,
बीबी ने भी कुर्सी पकड़ ली।
दांव लगाई और चारा खाई
सफल राजनीतिज्ञ भी बन गया भाई !!
मंदिर बॉटी, मस्जिद बॉटी,
और बॉटे गुरुद्वारे।
इससे भी न हुआ तो,
अगड़े-पिछड़ों में बॉट दिए सारे !!
तुम भी काटो, हम भी काटें,
बिना लिए लगाम।
सत्ता को कैसे भी पाओ,
चाहे जाए हजारों जान !!
लोकतंत्र की नीति बनाओ,
सदन में मल्लयुद्ध कराओ।
सत्ताधारी चाहे जो भी करें,
होगे वो बदनाम !!
कहलाने को लोकतांत्रिक कहलाते,
इसकी व्यवस्था को न ला पाते।
समय-समय पर बहस करवाते,
लेते रहते हजारों जान !!
आओ समय है समझें-संभले,
बिना किसी अभिमान।
राजनीतिज्ञों! कहो अभी भी,
कितनें लोगे जान? !!
उचित समय है यह,
करने का राजनीतिक पुनर्विलोकन।
राजनीतिज्ञ आत्ममंथन करें,
और करें अवलोकन !।
करने का राजनीतिक पुनर्विलोकन,
राजनीतिज्ञ आत्ममंथन करें,
और करें अवलोकन !!
लंबी जंग और कुर्बानी दी,
मातृभूमि की रक्षा को।
तब पाई थी स्वाधीनता,
और जाने सर्वस्व को !!
पाई स्वाधीनता अवश्य,
मगर उलझ गए गोरे गालों में।
माता के हृदय को विभक्त किया,
और बंट गए दो राष्ट्रों में !!
हृदय विदृर्ण हुआ तब-तब,
जब-जब सपूतों ने खेली खून की होली
कहलानें को स्वतंत्र हुए,
अपनाई आर्थिक ऋण की झोली !!
लोकतंत्र की आंधी आई थी,
बीते लगभग बरस साठ
अपने साथ सपन लाई थी,
सबकुछ होगा सबके पास !!
वादों के बोझों को जनता,
आज रही है कंधों झेल
हे राजनीतिज्ञों! कब दोगे इससे मुक्ति,
जब हो जाएगा हर्ट फेल !!
लोकतंत्र की इच्जत उतरी,
बीबी ने भी कुर्सी पकड़ ली।
दांव लगाई और चारा खाई
सफल राजनीतिज्ञ भी बन गया भाई !!
मंदिर बॉटी, मस्जिद बॉटी,
और बॉटे गुरुद्वारे।
इससे भी न हुआ तो,
अगड़े-पिछड़ों में बॉट दिए सारे !!
तुम भी काटो, हम भी काटें,
बिना लिए लगाम।
सत्ता को कैसे भी पाओ,
चाहे जाए हजारों जान !!
लोकतंत्र की नीति बनाओ,
सदन में मल्लयुद्ध कराओ।
सत्ताधारी चाहे जो भी करें,
होगे वो बदनाम !!
कहलाने को लोकतांत्रिक कहलाते,
इसकी व्यवस्था को न ला पाते।
समय-समय पर बहस करवाते,
लेते रहते हजारों जान !!
आओ समय है समझें-संभले,
बिना किसी अभिमान।
राजनीतिज्ञों! कहो अभी भी,
कितनें लोगे जान? !!
उचित समय है यह,
करने का राजनीतिक पुनर्विलोकन।
राजनीतिज्ञ आत्ममंथन करें,
और करें अवलोकन !।
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