राष्ट्र बड़ा या राजनीति ।अब यही प्रश्न जनमानस के मंथन के लिए सबसे अहम है। लंबी लड़ाई और बलिदान के बाद हमने आजादी पाई और गांधी,पटेल सरीखे नेताओं की कथनी और करनी से हमने एक संप्रभु राष्ट्र का निर्माण किया। लेकिन उस जंग और कुर्बानी पर श्नै-श्नै राजनीतिज्ञों ने तुष्टिकरण का धीमा जहर भरना शुरू किया। जिससे ना केबल देश का साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ा बल्कि देश की अस्मिता का भी चीर हरण हुआ। देश भाषा,समुदाय,समृद्धि,संस्कृति व क्षेत्र के नाम पर नफरत की आग पनपने लगी है। एक दूसरे को लोग संदेह व नफरत की निगाह से देखने लगे हैं।
इसी क्रम में देश में उभरी एक नई पार्टी के एक जिम्मेदार नेता द्वारा यह कहा जाना कि 'कश्मीर के लोगों की सहमति के बगैर वहां आंतरिक सुरक्षा के लिए सेना की तैनाती नहीं होनी चाहिए। इस पर जनमत संग्रह कराया जा सकता है।Ó आग में घी का ही काम करेगा। क्या कश्मीर भारत से अलग है।
देश के अंदर सेना तैनाती के फैसले पर जनमत संग्रह का सवाल ही नहीं है। वरना लोकतंत्र खतरे में होगा। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे लोकप्रिय फैसलों और जनमत संग्रह से तय नहीं होते हैं।
हालांकि भाजपा और कांग्रेस ही नहीं बल्कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सीधे तौर पर जनमत संग्रह का विरोध किया है। लेकिन इन पार्टी नेताओं को भी यह देखना होगा कि जब उनकी बारी आए तो वह भी राम-रहीम,मंदिर-मस्जिद जैसे तुष्टिकरण की राजतीति का पासा ना फेकें।
राजनेताओं को यह मंथन करना होगा कि हम जिस भूमि पर राजनीति कर रहे हैं हम उसके स्वामी नहीं बल्कि संरक्षक हैं जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने जाति,धर्म,सम्प्रदाय को भुलाकर अपना एक मात्र लक्ष्य बनाया था भारत मां की आजादी,और उन्होंने उसे लेकर दिखा दिया। अब कम से कम हम उसे एकता और भाईचारा के सूत्र में पिरोकर तो रखें।
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