Sunday, January 15, 2017

वेद सार--94

नन रक्षांसि न पिशाचा: सहन्‍ते देवानामोज: प्रथमजं हयेतत ।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्‍यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायु:।।  
                                     अथर्ववेद—1/35/2
व्‍याख्‍या—सुवर्ण के धारण करने वाले मानव को ज्‍वरादि रोग पीडि़त नहीं करते । मांसभक्षी पिशाच उसे दु:ख नहीं पहुंचा सकते क्‍योंकि वह हिरण्‍य (सोना) इन्‍द्रादि देवों से पहले ही उत्‍पन्‍न हुआ है। यह बल पैदा करने और शरीर पर धारण करने वाली आठवीं धातु है। जो मानव दाक्षायण सोना धारण करता है वह दीर्घायु को प्राप्‍त होता है।       

समानां मासामृतुभिष्‍टवा वयं संवत्‍सरस्‍य पयसापिपर्मि।
इन्‍द्राग्‍नि विश्‍वे देवास्‍ते नु मन्‍यन्‍तामहयर्णीयमाना:।।
                                    अथर्ववेद--- 1/35/4

व्‍याख्‍या—हे धन वैभव और ऐश्‍वर्य की कामना करने वाले मानव हम तुझे समान माह वाली ॠतुएं तथा संवत्‍सर पर्यन्‍त रहने वाले गौ दुग्‍ध आदि से युक्‍त करते हैं । इन्‍द्र अग्नि तथा सभी देवता हमारी त्रुटियों से क्रोधित न होकर स्‍वर्ण धारण करने से उत्‍पन्‍न फल प्रदान करें।               

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