Saturday, January 21, 2017

वेद सार-95

यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथायति।
एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा अस:।।
                                                               अथर्वर्वेद:-2/30/5
व्याख्या:- जिस प्रकार वायु के फेर में पड़ा हुआ तृण निरंतर चक्कर काटता हुआ घूमता है,उसी प्रकार हे स्त्री हम तेरे मन को हिलाते हैं,जिससे तू हमारी इच्छा कर और हमें छोड़कर कहीं और न जाए।


अंगे अंगे लोम्नि लोम्नि यस्ते पर्वणि पर्वणि।
यक्ष्मं त्वचस्यं ते वचं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि हामसि।। 
                                                             अथर्वर्वेद:-2/33/7
व्याख्या:-हे रोगिन तेरे समस्त अंगो एवं रोमकूपों से तथा प्रत्येक संधि भाग से जहां-जहां भी यक्ष्मा रोग का निवास हो वहां से उसे दूर करते हैं। 

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