Saturday, January 28, 2017
Monday, January 23, 2017
वेद सार--97
शप्तारमेतु शपथो य: सुहात्र्तेन: सह। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्द: पृष्ठरपि शृणीमसि।।
अथर्वर्वेद:-2/7/5
व्याख्या:-हमें शाप देने वाले को ही शाप लगे। अनुकूल रहने वाले व्यक्तियों से हमें सुख की प्राप्ति हो। हे मणे। अपने नेत्रों से घृणित संकेत करने वाले तथा गुप्त रूप से निंदा करने वाले मनुष्यों के नेत्रों और पाश्र्व को तू तोड़-फोड़ दे।
अग्ने यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म:।।
अथर्वर्वेद:-2/19/2
व्याख्या:-हे हरणशक्ति वाले अग्ने जो हमसे द्वेष करता है या जिससे हम द्वेष करते हैं,उस शत्रु की शक्ति का तू हरण कर।
अथर्वर्वेद:-2/7/5
व्याख्या:-हमें शाप देने वाले को ही शाप लगे। अनुकूल रहने वाले व्यक्तियों से हमें सुख की प्राप्ति हो। हे मणे। अपने नेत्रों से घृणित संकेत करने वाले तथा गुप्त रूप से निंदा करने वाले मनुष्यों के नेत्रों और पाश्र्व को तू तोड़-फोड़ दे।
अग्ने यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म:।।
अथर्वर्वेद:-2/19/2
व्याख्या:-हे हरणशक्ति वाले अग्ने जो हमसे द्वेष करता है या जिससे हम द्वेष करते हैं,उस शत्रु की शक्ति का तू हरण कर।
Sunday, January 22, 2017
वेद सार--96
सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप योस्मान् द्वेष्टि यं वचं द्विष्म:।।
अथर्वर्वेद:-3/21/3
व्याख्या:- हे शक्तिमान सूर्य तू अपनी प्रज्जवल शक्ति द्वारा उन शत्रुओं को जला जो हमसे द्वेष करते हैं अथवा जिनसे हम द्वेष करते हैंं।
वायो यत् ते तेजस्तेनत यतेजसं कृणु योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म:।।
अथर्वर्वेद:-2/20/5
व्याख्या:-हे वशीभूत करने की शक्ति वाले वायु तू इस शक्ति के द्वारा उस शत्रु को तेजहीन कर दे,जो हमसे द्वेष करता है अथवा हम जिससे द्वेष करते हैं।
अथर्वर्वेद:-3/21/3
व्याख्या:- हे शक्तिमान सूर्य तू अपनी प्रज्जवल शक्ति द्वारा उन शत्रुओं को जला जो हमसे द्वेष करते हैं अथवा जिनसे हम द्वेष करते हैंं।
वायो यत् ते तेजस्तेनत यतेजसं कृणु योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म:।।
अथर्वर्वेद:-2/20/5
व्याख्या:-हे वशीभूत करने की शक्ति वाले वायु तू इस शक्ति के द्वारा उस शत्रु को तेजहीन कर दे,जो हमसे द्वेष करता है अथवा हम जिससे द्वेष करते हैं।
Saturday, January 21, 2017
वेद सार-95
यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथायति।
एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा अस:।।
अथर्वर्वेद:-2/30/5
व्याख्या:- जिस प्रकार वायु के फेर में पड़ा हुआ तृण निरंतर चक्कर काटता हुआ घूमता है,उसी प्रकार हे स्त्री हम तेरे मन को हिलाते हैं,जिससे तू हमारी इच्छा कर और हमें छोड़कर कहीं और न जाए।
अंगे अंगे लोम्नि लोम्नि यस्ते पर्वणि पर्वणि।
यक्ष्मं त्वचस्यं ते वचं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि हामसि।।
अथर्वर्वेद:-2/33/7
व्याख्या:-हे रोगिन तेरे समस्त अंगो एवं रोमकूपों से तथा प्रत्येक संधि भाग से जहां-जहां भी यक्ष्मा रोग का निवास हो वहां से उसे दूर करते हैं।
एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा अस:।।
अथर्वर्वेद:-2/30/5
व्याख्या:- जिस प्रकार वायु के फेर में पड़ा हुआ तृण निरंतर चक्कर काटता हुआ घूमता है,उसी प्रकार हे स्त्री हम तेरे मन को हिलाते हैं,जिससे तू हमारी इच्छा कर और हमें छोड़कर कहीं और न जाए।
अंगे अंगे लोम्नि लोम्नि यस्ते पर्वणि पर्वणि।
यक्ष्मं त्वचस्यं ते वचं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि हामसि।।
अथर्वर्वेद:-2/33/7
व्याख्या:-हे रोगिन तेरे समस्त अंगो एवं रोमकूपों से तथा प्रत्येक संधि भाग से जहां-जहां भी यक्ष्मा रोग का निवास हो वहां से उसे दूर करते हैं।
Sunday, January 15, 2017
मध्यकालीन इतिहास का कर्टेन लेजर
मैं अपने व्लाग के प्रति वैश्विक स्तर पर पाठकों के जुडाव और उनकी अभिरुचि को देखते हुए मध्यकालीन भारतीय इतिहास से जुडी कुछ तथ्यों को किस्तों में पेश करूंगा जो न केवल आपके ज्ञान को समृदध करेगा बल्कि पेशेवर लोगों व वैसे छात्रों के लिए भी काफी मददगार साबित होगा जो किसी उच्चस्तरीय प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं या करने की सोच रहे हैं। हलांकि संभव है कि बहुत कुछ आपलोग जानते भी हों वाबजूद मुझे उम्मीद है कि इस शीर्षक के अन्तर्गत छपने वाली सामग्री आपके लिए उपयोगी होगी। संबंधित सामग्री पर आपलोगों की क्या राय है या आपको इसका मीटिरियल कैसा लगा हमें कमेंट अवश्य भेजें।
डा. राजीव रंजन ठाकुर
डा. राजीव रंजन ठाकुर
वेद सार--94
नन रक्षांसि न पिशाचा: सहन्ते देवानामोज: प्रथमजं हयेतत ।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं
स जीवेषु कृणुते दीर्घमायु:।।
अथर्ववेद—1/35/2
व्याख्या—सुवर्ण के धारण
करने वाले मानव को ज्वरादि रोग पीडि़त नहीं करते । मांसभक्षी पिशाच उसे दु:ख नहीं पहुंचा सकते क्योंकि
वह हिरण्य (सोना) इन्द्रादि देवों से पहले ही उत्पन्न हुआ है। यह बल पैदा करने और शरीर पर
धारण करने वाली आठवीं धातु है। जो मानव दाक्षायण सोना धारण करता है वह दीर्घायु को
प्राप्त होता है।
समानां मासामृतुभिष्टवा
वयं संवत्सरस्य पयसापिपर्मि।
इन्द्राग्नि विश्वे
देवास्ते नु मन्यन्तामहयर्णीयमाना:।।
अथर्ववेद--- 1/35/4
व्याख्या—हे धन वैभव और
ऐश्वर्य की कामना करने वाले मानव हम तुझे समान माह वाली ॠतुएं तथा संवत्सर
पर्यन्त रहने वाले गौ दुग्ध आदि से युक्त करते हैं । इन्द्र अग्नि तथा सभी
देवता हमारी त्रुटियों से क्रोधित न होकर स्वर्ण धारण करने से उत्पन्न फल
प्रदान करें।
Wednesday, January 11, 2017
वेद सार--93
वि न इन्द्र मृघो जहि नीख यच्छ पृतन्यत:।
अधमं गमया तमो यो अस्मां अभिदासति।।
अथर्ववेद – 1/ 21/ 2
व्याख्या-- हमारा शत्रु बनकर जो हमारे धन क्षेत्रादि को छीनकर हमारा विनाश कराना चाहता है हे इन्द्र तू उसे अंधेरों मे डाल । हमारे बैरियों का तू विनाश कर और हमारी सेनाओ द़वारा पराजित बैरियों को मुंह लटकाए भागने पर विवश कर दे।
सुषूदत मृडत मृडया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ।।
अथर्ववेद—1/ 26/ 4
व्याख्या– आश्रय प्रदान करने वाले इन्द्रादि देवता हमें आनंदित करें हमारे अनिष्टों को दूर कर सुखी करें तथा हमारे पुत्र- पौत्रों को आरोग्य प्रदान करें।
वेद सार--92
योन: स्वो यो अरण: सजात उत निष्टयो यो अस्मां
अभिदासति ।
रुद्र: शरव्य यैतान ममामित्रान
वि विध्यातु।।
अथर्ववेद – 1 /19 / 3
व्याख्या– हमसे संग्राम
करके, अधिकार को लेकर, हमें दास बनाने वाले हमारे स्वजन अथवा दूसरे अन्य लोग, सजातीय अथवा दूसरी जाति
वाले छोटे लोग जो हमारे शत्रु हैं, रुद्रदेव उन्हें अपने हिंसक वाणों से छलनी करें।
य: सपत्नो यो सपत्नो यश्च
दिव पाति न:।
देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु
ब्रहम वर्म ममान्तम।।
अथर्ववेद – 1/ 19/ 4
व्याख्या– हमारे जो शत्रु
गुप्त रूप से अथवा प्रकट होकर द़वेष भाव से हमारा संहार करने का प्रयत्न करें या
हमें शापित करें उन शत्रुओं को सभी देवता समाप्त करें । कवचरूपी मंत्र हमारी
सुरक्षा करे।
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