Saturday, April 30, 2016

वेद सार-43

भूर्भव: स्व:। सुप्रजा: प्रजाभि: स्याœ सुवीरो वीरै: सुपोप:  पोषै:। नये प्रजा में पाहि। शœस्यपशून्मे पाहि। अथर्थ पितु में पाहि।।
यजुर्वेद:- 3/37

भावार्थ :- 
भू: - हे सर्वमंगलकारकेश्वर, आप सदा वर्तमान हो
भुव :- वायु आदि पदार्थो के रचने वाले
स्व: - सुखरूप
सुप्रजा - श्रेष्ठ प्रजा वाला मैं
प्रजाभि: - पुत्र-पौत्रादि उत्तम गुण वाली प्रजा से
स्याम - होऊं
सुवीर: - युद्ध में सदा विजयी मैं
वीरै: - सर्वोत्कृष्ट वीर योद्धाओं से
सुपोष: - सर्व पुष्टियुक्त
पौषे: - अत्यंत विद्यादि सोमलता आदि औषधि
नयै -हे नरों के हितकारक ईश्वर
प्रजाम - प्रजा की
मे- मेरी
पाहि - रक्षा करो
शस्य - हे स्तुति करने योग्य ईश्वर
पशून - हृस्त्यश्वादि पशुओं का
में - मेरे
पाहि- पालन करो
अथर्थ - हे व्यापक ईश्वर
पितु - अन्न की
में - मेरे
पाहि - रक्षा कर।

व्याख्या :-  हे सर्वमंगलकारकेश्वर आप सदा वर्तमान हो, वायु आदि पदार्थों के रचने वाले सुख रूप हो, आप हमको भी सुख दीजिए।
हे सर्वाध्यक्ष आप कृपा करो जिससे कि मैं पुत्र पौत्रादि उत्तम गुण वाली प्रजा से श्रेष्ठ प्रजावाला होऊं। सर्वोत्कृष्ट वीर योद्धाओं से युद्ध में सदा विजयी होऊं। हे महापुष्टिप्रद, आप के अनुग्रह से अत्यंत विद्यादि तथा सोमलता आदि औषधि, सुवर्णादि और नैरोग्यादि से सर्वपुष्टि युक्त होऊं। हे नरों के हितकारक मेरी प्रजा की रक्षा आप करो। हे स्तुति करने योग्य ईश्वर पशुओं का आप पालन करो। हे व्यापक ईश्वर मेरे अन्न की रक्षा करो।
हे दयानिधे। हम लोगों को सब उत्तम पदार्थों से परिपूर्ण और सब दिन आप आनंद में रखो।

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