केतु
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मत्स्य व वायु पुराण के अनुसार समुद्रमंथन से प्राप्त अमृत को जब भगवान विष्णु द्वारा देवताओं को पिलाया जा रहा था उसी क्रम में राहु भी वेश बदलकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया और उसने भी अमृत पाण कर लिया। राहु कि इस करतूत को जब सूर्य और चंद्र ने देखा तो भगवान विष्णु को इसकी सूचना दी। इस पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से राहु का धड़ सिर से अलग कर दिया। राहु का वही धड़ केतु कहलाया। केतु बहुत से हैं इसमें धूमकेतु प्रधान है। केतु के अधिदेवता चित्रगुप्त हैं।
केतु का वर्ण :- केतु का वर्ण धूम्र है। सभी केतु द्विवाहु हैं। इनके मुख विकृत हैं।
आयुुध :- इनके दोनों हाथों में गदा तथा वरमुद्रा है।
केतु का वाहन :- गीध व कबूतर है।
केतु का निवास स्थान वायव्य कोण में है। केतु मीन राशि के स्वामी हैं।
केतु की वक्र दृष्टि से :- घाव होना, दांत का सडऩा, जल जाना, पस दायक बिमारी एवं गर्भ पात की संभावना बनी रहती है।
केतु की आराधना का वैदिक मंत्र :- ऊँ केतुं कृण्वन्न केतवे मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा:।।
केतु की आराधना का तांत्रिक मंत्र :- ऊँं ऐं हृीं केतवे नम:।
जप संख्या :- 68 हजार। इस दशांश 6800 तर्पण तथा इसका दशांश 680 मार्जन मंत्र से हवण करें। हवण में शमी या दुर्वा की आहुति आवश्यक है।
रत्न धारण :- लहसुनिया या लाजवर्त स्टोन को चांदी में बनवाकर शनिवार के दिन अभिषिक्त कर रात्रि में धारण करें। रत्न धारण संभव न हो सके तो वट वृक्ष की जड़ को काले कपड़े में बांधकर अभिषिक्त करने के पश्चात शनिवार के दिन ही रात्रि में बांह पर बांधे।
अभिषिक्त करने का मंत्र :- ऊँ कें केतवे नम:।
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